परफ़ेक्शनिज़्म: एक बोझ जो माता-पिता और बच्चों दोनों को थका देता है

Perfectionism in parenting: A Struggle for Parents and Kids

हम सभी माँ-बाप के तौर पर अपने बच्चों को भरपूर प्यार देना चाहते हैं—उन्हें हमेशा खुश, स्वस्थ और संस्कारी देखना चाहते हैं। इस लक्ष्य को पाने के लिए हम लगातार प्रयास करते हैं। हर ओर से सलाहें मिलती हैं—कभी पार्क की आंटी से, तो कभी टीवी, अख़बार या सोशल मीडिया से। हो सकता है आप भी उन माता-पिता में हों जो हर काम में परफेक्ट बनने की कोशिश करते हैं, या फिर हमेशा इस उलझन में रहते हैं कि “आदर्श” माता-पिता जैसी छवि आप पूरी नहीं कर पा रहे—और इसी चिंता में भीतर ही भीतर घुटते हैं।

लेकिन जितनी ज़्यादा हम परफेक्ट बनने की कोशिश करते हैं, उतनी ही ज़्यादा थकावट, तनाव और निराशा हमें घेरने लगती है। इसका असर सिर्फ हम तक सीमित नहीं रहता—बच्चे भी इस दबाव को महसूस करने लगते हैं। वे खुद को दूसरों की उम्मीदों पर खरा साबित करने की दौड़ में कमतर मानने लगते हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और मानसिक सेहत धीरे-धीरे कमजोर होने लगती है।

परफ़ेक्शनिज़्म क्या है?

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, परफ़ेक्शनिज़्म—हर काम में बिल्कुल सही होने की चाह—एक गहराई से जड़ें जमाया हुआ व्यक्तित्व गुण होता है, जो आसानी से नहीं बदलता। इसे दो हिस्सों में समझा जा सकता है। पहला: हर काम में बेहतरीन प्रदर्शन की कोशिश, जहाँ लोग अपने लिए इतने ऊँचे लक्ष्य तय करते हैं कि उन्हें पाना लगभग नामुमकिन होता है। दूसरा: ज़रा-सी असफलता पर ज़रूरत से ज़्यादा परेशान हो जाना, जिससे आत्म-संदेह और आत्म-सम्मान की कमी पैदा होने लगती है।

आज के भारतीय समाज में बच्चों से जुड़े संस्कारों और आदर्श व्यवहार की अपेक्षाएँ इतनी ऊँची हैं कि माता-पिता पर हर समय परफेक्ट दिखने का दबाव बढ़ता जा रहा है। वे सिर्फ समाज या रिश्तेदारों को नहीं, बल्कि खुद को भी एक आदर्श माँ-बाप के रूप में देखने की कोशिश करते हैं—ख़ास तौर पर जब वे अपनी तुलना दूसरों से करने लगते हैं। यह तुलना धीरे-धीरे आत्मसंतोष को खत्म कर देती है और एक ऐसी थकाऊ दौड़ शुरू हो जाती है, जिसका कोई अंत नहीं होता।

बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ करने की चाह स्वाभाविक है, लेकिन जब यह कोशिश हद से ज़्यादा बढ़ जाती है, तो यही भावना धीरे-धीरे तनाव, मानसिक थकान और आत्म-संदेह में बदलने लगती है। यह बोझ सिर्फ माँ-बाप के भीतर नहीं रहता—बल्कि बच्चों और पूरे परिवार के माहौल पर असर डालता है। ऐसे में माता-पिता अनजाने में बच्चों के साथ ज़रूरत से ज़्यादा सख्ती और आलोचना करने लगते हैं, जिससे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। पेरेंटिंग की वह सहज खुशी, जो कभी दिल से आती थी, धीरे-धीरे खोने लगती है।

बच्चों पर परफ़ेक्शनिज़्म का असर

सबसे अहम बात यह है कि जब माता-पिता इस परफेक्शन की दौड़ में बहुत आगे निकल जाते हैं, तो उनके बच्चे भी उसी पैटर्न को अपनाने लगते हैं। शोध यह साफ़ दर्शाते हैं कि परफेक्शनिस्ट माँ-बाप के बच्चे भी खुद पर ज़्यादा दबाव डालते हैं, और छोटी-छोटी असफलताओं को व्यक्तिगत कमी मानकर खुद को कोसने लगते हैं। नतीजतन, ऐसे बच्चों में अवसाद, चिंता, आत्म-आलोचना और कभी-कभी आत्म-हानि तक की प्रवृत्ति देखी जाती है।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि परफेक्शनिज़्म दो मुख्य स्वभावों से जुड़ा होता है—कर्तव्यनिष्ठा और अत्यधिक चिंता। कर्तव्यनिष्ठ लोग हर काम में श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हैं, जबकि चिंतित स्वभाव वाले लोग छोटी-सी गलती पर भी परेशान हो जाते हैं। जब माता-पिता इन दोनों प्रवृत्तियों को साथ लेकर चलते हैं, तो वे खुद से लगातार आदर्श बनने की उम्मीद करते हैं। पर असल ज़िंदगी में पेरेंटिंग आसान नहीं होती—हर दिन कोई न कोई चुनौती सामने आती है। जब कुछ उनकी सोच के अनुसार नहीं होता, तो वे बेचैनी और आत्मग्लानि से घिर जाते हैं।

इसका असर बच्चों पर भी पड़ता है। वे महसूस करने लगते हैं कि गलती करना अस्वीकार्य है, और धीरे-धीरे इसे अपनी पहचान से जोड़ लेते हैं—जैसे वे खुद “गलत” हैं। इससे उनमें आत्म-संदेह और हीन भावना बढ़ती है, जबकि गलती तो सीखने का हिस्सा होती है।

एक आम भारतीय उदाहरण

कल्पना कीजिए—एक माँ को स्कूल से फोन आता है कि उसका पाँच साल का बेटा किसी बच्चे को धक्का दे बैठा। माँ तुरंत शर्मिंदगी और अपराधबोध में घिर जाती है। वह खुद को नाकाम समझती है और गुस्से में घर जाकर बच्चे पर चिल्ला पड़ती है—बिना यह जाने कि असल में हुआ क्या था।

इस तरह की प्रतिक्रिया बच्चे के मन पर गहरा असर डालती है। वह यह मान बैठता है कि उसने कोई गलती नहीं, बल्कि वह खुद ही “गलत” है। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है।

सकारात्मक पेरेंटिंग की ओर एक कदम

हालाँकि, सभी परफेक्शनिस्ट माता-पिता कठोर नहीं होते। कुछ “प्रयासकर्ता” होते हैं—जो गलतियों को सुधार का अवसर मानते हैं। अगर वही माँ पहले स्थिति को समझती, तो बच्चे को सज़ा नहीं, सहानुभूति मिलती। ऐसे व्यवहार से बच्चे को न सिर्फ सुरक्षा का अहसास होता है, बल्कि वह यह भी सीखता है कि गलती करना इंसान होने का हिस्सा है

शोध बताते हैं कि जो माता-पिता अपनी कमियों को स्वीकार करते हैं और सीखते हैं, वे बच्चों पर अनावश्यक मानसिक दबाव नहीं डालते। ऐसे घरों में बच्चे खुद को सुरक्षित और स्वीकार्य महसूस करते हैं—जो उनके मानसिक विकास के लिए बेहद ज़रूरी है।

परफ़ेक्शनिज़्म के संकेतों को पहचानें और खुद की मदद करें

विशेषज्ञों का मानना है कि एक संतुलित और सचेत पेरेंटिंग दृष्टिकोण अपनाना आज की ज़रूरत है। सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि कहीं हमारी अपेक्षाएँ हमें या बच्चों को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहीं।

कुछ संकेत मदद कर सकते हैं: जैसे अगर आप खुद को “या तो सब कुछ ठीक, या फिर सब बेकार” की सोच से आंकने लगें, अपनी सफलताओं को नज़रअंदाज़ करें, या आपका बच्चा अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट न हो क्योंकि उसे लगता है कि वह “पर्याप्त अच्छा” नहीं है।

अगर आपको लगे कि आप हमेशा खुद की आलोचना कर रहे हैं, तो सबसे पहला कदम है—अपने प्रति दयालु होना। यह याद रखें कि आप हर दिन अपने बच्चों के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं। खुद से वैसे ही बात करें जैसे किसी करीबी दोस्त से करते—सहानुभूति और समझ के साथ।

हम अक्सर मान लेते हैं कि दूसरे माता-पिता हमसे बेहतर हैं, जबकि सच यह है कि ज़्यादातर लोग भीतर से संघर्ष कर रहे होते हैं। इसलिए अनुभव साझा करें, बात करें—यह न सिर्फ बोझ हल्का करता है, बल्कि सीखने का अवसर भी देता है।

और अगर अपराधबोध, थकान या विफलता की भावना लगातार सताने लगे, तो काउंसलर या मनोवैज्ञानिक की मदद लेने से न हिचकें। यह कमजोरी नहीं, बल्कि समझदारी है।

अंत में—बच्चों को परफेक्ट माता-पिता नहीं चाहिए। उन्हें ऐसे माँ-बाप चाहिए जो उन्हें बिना शर्त प्यार करें, समझें और हर मोड़ पर साथ निभाएँ। जब आप परफेक्ट बनने की होड़ में थकते हैं, तो वही आत्मीयता खो बैठते हैं जिसकी बच्चों को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।


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